दरिया आँखों में अब कहाँ टिकता है
ज़मीं पर बहता है और यहाँ मिटता है
जो दिखाई देता है वो तो बस पानी है
अश्क तो गालों पर बूंदों सा मिलता है
जिगर में घाव कोई जब कभी जलता है
दर्द फिर चेहरे पर सलवटों सा दिखता है
गर जो धुंधला है ये आईना कसूर तेरा है
गम तेरे ही पहलू में सिमटा सा सिलता है
ना गुजर फिर से तू इन पुरानी राहों से
इन मोहब्बतों में अब लहू सा गिरता है
........इक अजनबी कुछ अपना सा........
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