कहीं तो चेहरों पर बस उजली हंसी होती है
और कहीं ये काली परतों को ढकी होती है
नहीं सजता है बाबू, बाज़ार ईमानदारी का
जमात बेईमानों की घरों में ही छुपी होती है
किसी ने पूछा जो मुझसे वफ़ा चीज़ है क्या
जनाब ये दिलजलों के लहू में घुली होती है
हो हिस्सेदार जो कारोबार में कोई अपना ही
दगा और धोखों की फिर कहाँ कमी होती है
नजरिया तंग हो और नज़रें हों धुंधली बहुत
दम घुटता है के दिलों पे सांकल चढ़ी होती है
सभी हैं तेरे जैसे, इस मुगालते में ऐ दोस्त
नेकियाँ औरों से मगर खुद से बदी होती है
........इक अजनबी कुछ अपना सा..........
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