Thursday, November 4, 2010

इस दीवाली...देख 'काफ़िर' ने

आँगन लड़ियों से सजा रखा है
मकान मैंने...जगमगा रखा है

खुश्बू से खिल उठें सभी चेहरे
इत्र से घर को महका रखा है

आएगा मेरे घर...ख़ुदा मेरा
मंदिर छोटा सा बना रखा है

हों ख़ताएँ मेरी मुआफ़ सभी
माँ को सामने बिठा रखा है

मांग लूँ सबके लिए ख़ुशियाँ
फ़कीर बाबा को बुला रखा है

ना हो अँधेरा किसी की राहों में
दीये सा दिल को जला रखा है

क्या करूंगा मैं सोने-चाँदी का
पिछला सब तो बचा रखा है

देखलूँ तुझको मैं भी तर जाऊं
दरिया आँखों से बहा रखा है

आ भी जा अबके बरस मौला
अलख कब से...जगा रखा है

अर्क मैंने...अज़ान में...अपनी
लेकर हर दर से मिला रखा है

झोलियाँ भर दे इलाही सबकी
दामन अपना...फैला रखा है

इस दीवाली...देख 'काफ़िर' ने
मज़ार पर खुदको झुका रखा है

.....इक अजनबी कुछ अपना सा.....

Monday, October 18, 2010

महफ़िल में यार आया हूँ...

मैं चाहतों की तेरी, महफ़िल में यार आया हूँ
उम्मीदें ज़िन्दगी से, मांगकर उधार लाया हूँ
नहीं देखा मैंने हँसता हुआ कोई चेहरा कभी
तेरी मुस्कुराहट पे करने जाँ-निसार आया हूँ

चांदनी खूब फिर खिलेगी शबनमी सी रातों में
यूँ ही हंस दे गर ज़रा तू अजनबी की बातों पे
हसरतें इतनी सी बस खुशियाँ मिलें तुझे सारी
रख कर पलकों पर यही ख्वाब हज़ार आया हूँ

मैं हूँ इक बंजारा और शहर - शहर भटकता हूँ
अक्स मासूम सभी दिल में बसा कर रखता हूँ
कहाँ मिलते हैं अब यहाँ प्यारे ऐसे सच्चे चेहरे
शायद ज़न्नत के किसी कूचे - बाज़ार आया हूँ

ग़मों के झरने ना बहें...कभी तुम्हारी आँखों से
दर्द के मन्ज़र ना सजें....कभी तुम्हारी राहों में
जहाँ से गुज़रो तुम गुलाबों की हों बरसातें वहाँ
इक अजनबी हूँ मगर, लेकर मैं प्यार आया हूँ


...........इक अजनबी कुछ अपना सा.............

Saturday, August 28, 2010

ख्व़ाब ही है...शायद...

उनके ख़्वाबों में रोज़ आता हूँ
आकर चाहतें मैं रोज़ लुटाता हूँ

खेलता हूँ लटों से उनकी और
छूकर बालों को मुस्कुराता हूँ

करवटें लेते हैं कसमसा कर वो
पाँव उनके मैं जब सहलाता हूँ

टूट जाए ना सिलसिला ये कहीं
हाथों को दूर मैं फिर हटाता हूँ

वो महकते हैं हसीँ गुलाबों जैसे
खुश्बू से खुद को मैं महकाता हूँ

शायद हँसते हैं मुझे ही देखके वो
मैं भी हंस कर ही प्यार जताता हूँ

लिपट जातें हैं वो यूहीं सोते-सोते
मैं भी सिमट कर यूहीं सो जाता हूँ

.....(इक अजनबी कुछ अपना सा...).....

Wednesday, July 14, 2010

इन मोहब्बतों में अब...

दरिया आँखों में अब कहाँ टिकता है
ज़मीं पर बहता है और यहाँ मिटता है

जो दिखाई देता है वो तो बस पानी है
अश्क तो गालों पर बूंदों सा मिलता है

जिगर में घाव कोई जब कभी जलता है
दर्द फिर चेहरे पर सलवटों सा दिखता है

गर जो धुंधला है ये आईना कसूर तेरा है
गम तेरे ही पहलू में सिमटा सा सिलता है

ना गुजर फिर से तू इन पुरानी राहों से
इन मोहब्बतों में अब लहू सा गिरता है

........इक अजनबी कुछ अपना सा........

सभी हैं तेरे जैसे...

कहीं तो चेहरों पर बस उजली हंसी होती है
और कहीं ये काली परतों को ढकी होती है

नहीं सजता है बाबू, बाज़ार ईमानदारी का
जमात बेईमानों की घरों में ही छुपी होती है

किसी ने पूछा जो मुझसे वफ़ा चीज़ है क्या
जनाब ये दिलजलों के लहू में घुली होती है

हो हिस्सेदार जो कारोबार में कोई अपना ही
दगा और धोखों की फिर कहाँ कमी होती है

नजरिया तंग हो और नज़रें हों धुंधली बहुत
दम घुटता है के दिलों पे सांकल चढ़ी होती है

सभी हैं तेरे जैसे, इस मुगालते में ऐ दोस्त
नेकियाँ औरों से मगर खुद से बदी होती है

........इक अजनबी कुछ अपना सा..........

तुझको सीने से लगा...

प्यार तुझ से मैं कुछ इस कदर करता हूँ
अक्स अपना मैं तुझ में नज़र करता हूँ

यूहीं उड़ता रहे तू मासूम परिंदों की तरह
अपनी बाहों को फैला तेरे मैं पर करता हूँ

जब तू हँसता है गम मेरे फ़ना हो जाते हैं
तुझमे जीता हूँ मैं तुझमें ही बसर करता हूँ

तेरी नासाज़ तबियत औ वो मुश्किल हालात
अब भी रातों में खुदा से बातें अक्सर करता हूँ

याद आती हैं तेरी तकलीफें अश्क बहते हैं मेरे
ख़ुशी के वर्कों पे दर्ज़ इनको अब मगर करता हूँ

गले से लगकर मुझे चूमा था जिस लम्हा तूने
मकां बदला मैंने अब तेरे दिल में घर करता हूँ

कहा दानिश ने के औलाद कहकशां है फूलों का
तेरी मुस्कराहट से मैं ज़िन्दगी समर करता हूँ

तुझको सीने से लगा बरसों सकून पाया मैंने
अब सिमटकर तुझमें गहरा ये असर करता हूँ

.............इक अजनबी कुछ अपना सा............

Friday, March 26, 2010

कहा था आलिम ने...(ग़ज़ल)

कोशिशें उनको मनाने की हज़ार करता हूँ..
वो नहीं मानते मैं उनको प्यार करता हूँ...

मिलें निगाहें तो कतराकर निकल जाते हैं...

कहते हैं लोगों से मैं वक़्त गुजार करता हूँ...

नहीं तहज़ीब हमें हुनर भी कहाँ है हासिल...

नज़र वो आयें तो सलाम-ए-यार करता हूँ...

बेरुखी पर उनकी शीशों सा दिल चटकता है...

मुस्कुराकर लेकिन उनका इंतज़ार करता हूँ...

मुड़कर देखा है अभी हंस दूँ तो कोई बात बने...

लगता है शायद अब मैं दिल पे वार करता हूँ...

कहा था आलिम ने नज़ाकत की बातें करना...

मर्हबा हुस्न है दीवानों सा इज़हार करता हूँ...

(इक अजनबी कुछ अपना सा)......