वही इक रोज़ कभी कोई सपना सा लगता है...
बिगड़ जाते हैं चेहरे, बस्तियां उजड़ जाती हैं...
छाप कदमो की भी, इक रोज़ धुंधला जाती हैं...
बेसबब अंधेरों से मंजिलों का पता पूछते हैं...
नाउम्मीदी हर लम्हा नसीब जलाये जाती है...
हसरतें टपकती हैं पलकों से कतरा - कतरा...
ज़र्रा - ज़र्रा बन ज़मीनों पर बिखरती जाती हैं...
तन्हाई चुपचाप चली आती है बिन कहे कुछ भी...
यादें अश्क बन कर आँखों से गिरती जाती हैं...
नुमायाँ होती हैं...तल्खियां चेहरों पर सजी...
बेवजह औरों को...नश्तर चुभोये जाती हैं...
...
बेवजह औरों को...नश्तर चुभोये जाती हैं...
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गर जो यूं लगे तो फिर इक बार चलो ऐसा करें...
मुस्कुराहटें लुटाने की, कोई इक रवायत करें...
बेनूर चेहरों को क्यों, बेपर्दा कर हंसें हम तुम...
क्यों ना किसी रोते को, हँसाने की कवायत करें...
ज़ख्म देकर कहाँ मिलती है कभी ख़ुशी कोई...
ग़मों को बाटने की क्यों ना हम शिकायत करें...
क्यों हो हर बार हासिल मुनाफ़ा चाहतों का हमें...
क्यों ना इक बार हम यूं ही बस मोहब्बत करें...
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क्यों ना इक बार हम यूं ही बस मोहब्बत करें...
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शबे-गम चांदनी जो आये गर शबनम बनकर...
जन्नतें फलक से उतर ज़मीं पर नज़र आती हैं...
शबे-फुरकत में थक चुकी हों जो निगाहें रोकर...
अश्के-दरिया उनका खुशियों से बदल जाती हैं...
इल्मे-सहर पुरसकून और दिलों में रौशनी...
हंसती आँखें इक नयी, रूह देकर जाती हैं...
दिल के वर्कों में, इक नया वर्क जोड़ जाती हैं...
दिल के वर्कों में, इक नया वर्क जोड़ जाती हैं...
(इक अजनबी कुछ अपना सा)...
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