Sunday, February 21, 2010

सपने...हसीन सपने...

सपने...हसीन सपने...
मै भी देखता हूँ आप ही की तरह
खूब सुन्दर शुरुआत होती है...
कभी चांदनी रात होती है...
कभी तारो की बरसात होती है...
कभी सफ़ेद घोडे पर सवार
राजकुमार देखता हूँ खुद को
कभी सितारों सी झिलमिलाती
चांदनी में लिपटी, जगमगाती
राजकुमारी को देखता हूँ...
सपने हसीन सपने...
राजकुमार के सपने...राजकुमारी के सपने...
कल फिर देखा था उसको
दुधिया रंगत लिए काया...परियों सा खिलता सौन्दर्य
वो पास आ रही थी, धड़कने बढ़ा रही थी
हाथों को देखा...देखता ही रह गया
गुलाबी हाथ, तराशी हुई उंगलियाँ
छू लूँ तो मैली हो जाएँ...
सपने हसीन सपने...
राजकुमार के सपने...राजकुमारी के सपने...
हाथ...उंगलियाँ...
माँ दिखने लगी...
माँ के हाथ दिखने लगे
उसकी उंगलियाँ दिखने लगी
कितनी जल गयी हैं...
बरसों से चूल्हा जलाते जलाते
पूरी बांह पर जलने के निशान हैं
जाते ही नहीं...ठहर गए हैं गरीबी की तरह
कैसे जायेंगे...चले गए तो अपना अहसास कैसे दिलाएंगे...
कल ही मैंने जिद्द की थी माँ से
गुड़ की रोटी खाने के लिए...
बहुत गर्म थी गुड़ की रोटी
तभी शायद बनाते हुए उसकी
आँखों से पानी गिर रहा था...
अक्सर ही जला देता हूँ उसके हाथो को
कितने घाव देता हूँ उसको...
जितने भी घाव दो...माँ तो माँ ही होती है...
जलती है...फिर भी रोटी बनाती है...
सपने....हसीन सपने...
कितनी कमज़ोर हो गयी है उसकी दृष्टि
फिर भी सपने देखती है
दुल्हन के...प्यारी सी दुल्हन के...
प्यारी सी बेटी जैसी प्यारी सी दुल्हन...
अपनी बेटी ना होने का गम है शायद
सारी सपने उसी में ढूँढती है
ऐसा कहीं होता है क्या...
राजकुमारी कभी रोटी बनाती है क्या...
बूढ़ी हो गयी है...इसीलिए ज्यादा सोच नहीं पाती
ना ही सोचे तो अच्छा है
सपने ना ही देखे तो अच्छा है
सपने....हसीन सपने
राजकुमार के सपने...राजकुमारी के सपने
प्यारी सी बेटी के सपने...प्यारी सी दुल्हन के सपने
सपने...
माँ के सपने...

(इक अजनबी कुछ अपना सा)

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