मै खुद से ही हर इक बात किया करता हूँ...
मै तेरे शहर में मर मर के जिया करता हूँ...
जिस्म तो मेरा भी बाहर से सभी जैसा है...
मै सभी ज़ख्मो को अन्दर से सिया करता हूँ...
मै भी हंसकर ही ज़माने के जुल्म सहता हूँ...
छलक ना जाए दर्द अपने पिया करता हूँ...
टीस उठती है तो डरता हूँ जान जाओगे तुम...
मै छुपके रातों से मरहम भी लिया करता हूँ...
मै परेशान हूँ इन तन्हाईयों के शिकवों से...
क्यों अंधेरों को ही महसूल दिया करता हूँ...
इक अजनबी कुछ अपना सा)...
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