Saturday, February 20, 2010

क्या खरीदोगे...

शहर-शहर भटकता हूँ...
मैं आवाज़ें देता हूँ...
महंगे सामानों पर
हर लम्हा नज़र देता हूँ...

क्यों गिराते हो कीमती बूंदे
तुम ज़मीनों पर...
मैं इन्हीं मोतियों का ही
तो मौल ज्य़ादा देता हूँ...

कहाँ खरीदते हो तुम कभी
छोटी दुकानों से...
साहूकार तुम तो ढूंढते हो
ऊँचे मकानों से...
कहाँ मैं मांगता हूँ दाम
अपने सौदों का...
मैं तो बस दिल को ही
सारी तवज्जो देता हूँ...

कुछ मुनाफा तो मुझको
ज़रूर होता है...
बूंद दर बूंद ये समंदर
मुझको भिगोता है...
सूखा दरिया निगाहों का
चुभन देता है...
सींचकर उसको मैं भी
कुछ आराम देता हूँ...

हंसी सजाकर होंठो पर
रख मैं लेता हूँ...
पुराने सौदों को परतों से
ढक मैं देता हूँ...
बेचता हूँ मैं मुस्कराहट
वही पुरानी फिर से..
आवाजें देता हूँ, बुलाता हूँ...
क्या खरीदोगे...???...

शहर-शहर मैं भटकता हूँ...
क्या खरीदोगे...
सस्ता सामान मैं बेचता हूँ...
क्या खरीदोगे...

इक अजनबी कुछ अपना सा...

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