Saturday, February 20, 2010

चाहतें महंगी हैं...(ग़ज़ल)

कच्चे धागों में, हसरतों के मोती पिरोता हूँ...
टूट कर गिरते हैं, मै देख कर बहुत रोता हूँ...

रंग मैं छांटता हूँ, सोने के कभी चाँदी के...
फीके रंग आँखों से, गिराकर इन्हें भिगोता हूँ

खूब उछलते हैं, ज़मीं पर जब ये गिरते हैं...
बिखरे अरमानों को चुन चुन के फिर संजोता हूँ

जाने क्यों मोती मेरे, रह जाते हैं सबसे पीछे...
क्यों ये मुझको ही हराते हैं, मै हैरान होता हूँ

सुनते थे कीमती होते हैं, शबनमी अश्क बहुत...
रेत में जाकर ये छुपते हैं, मै इन्हें खोता हूँ

रेशमी धागे कहाँ से लाऊं मै, जन्नतें हैं कहाँ...
मिलेंगे ख़्वाबों में शायद, ये सोच कर सोता हूँ

नरगिसी बूँदें ज़रा, हमको भी बख्श मेरे खुदा...
चाहतें महंगी हैं और मै सस्ता सामान ढोता हूँ...


इक अजनबी कुछ अपना सा....

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